कबरिस्तान की सिसकी

कबरिस्तान की सिसकी

रात का तीसरा पहर था, जब राघव अपने दोस्तों के साथ गाँव के पुराने कबरिस्तान में गया। चारों ओर गहरी चुप्पी और ठंडी हवा थी। अचानक, राघव ने सुना, किसी ने उसके नाम से पुकारा। वो पलटा, लेकिन वहां कोई नहीं था। तभी, उसके पैरों के पास जमीन हिली, जैसे कोई उसे खींचने की कोशिश कर रहा हो।

राघव ने जैसे ही पीछे मुड़कर देखा, उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं—कब्र से एक हाथ निकल रहा था। उसकी सिसकियाँ राघव के कानों में गूंजने लगीं, “मुझे छोड़ो नहीं… मैं अभी ज़िंदा हूँ…”

राघव ने डर से काँपते हुए वहाँ से भागने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही उसने पहला कदम उठाया, अचानक कब्रें खुद-ब-खुद खुलने लगीं। हर कब्र से बेजान हाथ निकलकर राघव की ओर बढ़ रहे थे, जैसे उसे घसीटने के लिए आतुर हों। एक ठंडी और कंकाल जैसी उँगली ने उसकी टखने को पकड़ लिया। राघव की चीखें कबरिस्तान में गूंज उठीं, और फिर… सब कुछ अचानक शांत हो गया।

सुबह जब लोग कबरिस्तान पहुँचे, तो वहाँ राघव का कोई नाम-ओ-निशान नहीं था। सिर्फ जमीन पर घसीटने के निशान थे… और राघव की एक चप्पल, जो उसके आखिरी कदम की गवाही दे रही थी।

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